ताकि भविष्य भी सुनहरा हो हॉकी का
भारतीय हॉकी के भविष्य से निराश हो चुके खेल प्रेमियों में टोक्यो ओलंपिक खेलों ने एक नयी आशा जगायी है। दशकों की बादशाहत के बाद अगर दशकों तक शर्मसार होना पड़े तो निराशा उसका स्वाभाविक परिणाम है। भारतीय पुरुष हॉकी के साथ ऐसा ही हुआ। कल्पना भी मुश्किल लगती है कि कोई एक टीम चार साल के अंतराल पर होने वाले ओलंपिक खेलों में लगातार छह स्वर्ण पदक जीते, मगर इसे हकीकत में बदलने का करिश्मा कर दिखाने वाला कोई और नहीं, भारत ही रहा। गुलाम भारत से स्वतंत्र भारत तक—हमारी पुरुष हॉकी टीम ने लगातार छह स्वर्ण पदक जीते। ओलंपिक में कुल स्वर्ण पदकों की बात करें तो आठ पदक जीतने का रिकॉर्ड भारत के नाम है। जिस देश की टीम ने गुलामी के दिनों में हॉकी में स्वर्णिम सफर की शुरुआत कर आजादी के बाद तक उसे शान से बरकरार रखा, उसे अगर पदक तो दूर ओलंपिक सेमीफाइनल में प्रवेश के लिए भी चार दशक इंतजार करना पड़े तो खेल की बदहाली और खिलाडिय़ों की मनोदशा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
जाहिर है, यह स्थिति अचानक नहीं हुई। पहले गुलाम और फिर नव स्वतंत्र देश भारत की बादशाहत से शर्मसार यूरोपीय देशों ने खेल मैदानों से लेकर नियमों तक में अपने अनुकूल परिवर्तन कर भारतीय हॉकी की बुनियाद हिलाने की साजिशें रचीं तो भारतीय हॉकी संघ पर काबिज मठाधीशों ने भी खेल की जड़ें खोदने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। जिन्होंने खुद कभी हॉकी से कोई कमाल नहीं दिखाया, वे हॉकी खिलाडिय़ों का भविष्य बनाते-बिगाड़ते रहे। व्यक्तिगत पसंद-नापसंद, जी-हुजूरी खेल प्रतिभा और प्रदर्शन पर भारी पडऩे लगी। क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि एके-47 के साये में भारतीय हॉकी संघ के अध्यक्ष का चुनाव हुआ होगा? जी हां, ऐसा ही हुआ था, जब एक राज्य के पुलिस प्रमुख ने हर हाल में हॉकी संघ का अध्यक्ष बनने की ठान ली थी। चुनाव दूसरे राज्य में हो रहा था, पर नियम-कानून को धता बता कर यह स्वयंभू खेल प्रेमी पुलिस अफसर वहां भी मतदाताओं को एके-47 से आतंकित करने में सफल रहा, और अंतत: अध्यक्ष बनने में भी। जब खेल संघ इस हद तक राजनीति-मठाधीशी के अड्डे बन जायें, तब तो वही होना था, जो भारतीय हॉकी के साथ हुआ।
बेशक जीत, जीत ही होती है। इस लिहाज से 1980 के मॉस्को ओलंपिक खेलों में वासुदेव भास्करन के नेतृत्व वाली भारतीय हॉकी टीम द्वारा जीते गये स्वर्ण पदक को कम नहीं आंका जा सकता, पर इस सच से भी तो मुंह नहीं चुराया जा सकता कि अमेरिका और उसके मित्र देशों द्वारा बहिष्कार के चलते उन खेलों में सिर्फ छह पुरुष हॉकी टीमों ने ही भाग लिया था। इसमें दो राय नहीं कि भारतीय टीम ने अपने हर मैच में शानदार हॉकी खेली और पूल में टॉप पर रहने वाली स्पेन की मजबूत टीम को फाइनल में 4-3 से हरा कर अपना रिकॉर्ड आठवां स्वर्ण पदक जीता था। 16 साल बाद वह स्वर्ण पदक जिताने में सुरिंदर सिंह सोढी की निर्णायक भूमिका रही, जिन्होंने उस ओलंपिक में 15 गोल दागे थे, जो किसी भारतीय खिलाड़ी द्वारा एक ओलंपिक में किये गये सर्वाधिक गोल हैं। इससे पहले 14 गोल का रिकॉर्ड मेजर ध्यानचंद के नाम था, जो उन्होंने अपने और देश के पहले ही ओलंपिक (एम्सटर्डम) में दागे थे। हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यान चंद कितने आला दर्जे के खिलाड़ी थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने आखिरी ओलंपिक में भी 13 तथा कुल तीन ओलंपिक खेलों में 39 गोल किये थे। अपने आखिरी ओलंपिक (बर्लिन) में ध्यान चंद भारतीय टीम के कप्तान भी थे और फाइनल में जर्मनी को 8-1 से हरा कर स्वर्ण पदक जीता था। बताते हैं कि ध्यान चंद के खेल से प्रभावित हिटलर ने उन्हें खाने पर आमंत्रित किया और जर्मन सेना में कर्नल बनाने का प्रलोभन देते हुए अपने देश की ओर से खेलने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने यह कह कर ठुकरा दिया कि भारत मेरा वतन है, मैंने उसका नमक खाया है, मैं उसी के लिए खेलूंगा। यह वह स्वर्णिम दौर था, जब भारत खुद हॉकी की पहचान था और विपक्षी टीमें उसके विरुद्ध गोल करने तक के लिए तरस जाती थीं।
हॉकी के उसी जादूगर के देश में, खासकर पिछले चार दशकों में इस खेल का जैसा पतन हुआ, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है, पर उसके लिए खिलाडिय़ों से ज्यादा हॉकी संघ की मठाधीशी और उसमें निहित राजनीति जिम्मेदार रही है। ऐसा नहीं कि इस बीच भारत में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी नहीं हुए। कमोबेश इसी अवधि में ध्यान चंद के बेटे अशोक कुमार खेले, जफर इकबाल खेले, मोहम्मद शाहिद खेले, जगबीर सिंह खेले। यह फेहरिस्त लंबी बन सकती है, पर मुद्दा यह कि मठाधीशों के एजेंडा पर हॉकी खेल रहा ही नहीं। चार दशक के पतन के बाद अब टोक्यो ओलंपिक में जर्मनी को 5-4 से हरा कर कांस्य पदक जीत भारतीय टीम ने हॉकी के पुनरुत्थान की आस जगायी तो इसे ऐतिहासिक अवसर से कम नहीं माना जा सकता। इसलिए भी कि टोक्यो में ओलंपिक भारतीय हॉकी के लिए अतीत में भी शुभ रहे हैं। ध्यान रहे कि 1960 के रोम ओलंपिक फाइनल में पाकिस्तान ने भारत का लगातार सातवां स्वर्ण पदक जीतने का सपना तोड़ दिया था, जिसका बदला चार साल बाद टोक्यो में हुए ओलंपिक में ही लिया जा सका था। बेशक उसके बाद 1968 के मैक्सिको और 1972 के म्यूनिख ओलंपिक भी आये, जब भारत को कांस्य पदक से ही संतोष करना पड़ा। इस बार चार दशक के लंबे अंतराल के बाद टोक्यो में कांस्य पदक मिला है, जो निश्चय ही हॉकी के बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाता है।
टोक्यो ओलंपिक पुरुष टीम को मिले कांस्य के अलावा भारतीय महिला हॉकी टीम के प्रदर्शन के लिए भी यादगार रहेगा। बेशक हमारी महिला टीम ब्रिटेन से कड़े मुकाबले में कांस्य जीतने से चूक गयी, लेकिन कमजोर शुरुआत के बावजूद जीवट की बदौलत पहली बार सेमीफाइनल में पहुंच कर उसने भी उम्मीद जगायी है कि पेरिस में होने वाले अगले ओलंपिक खेलों से खाली हाथ तो नहीं लौटेगी। पिछले रियो ओलंपिक में 12 टीमों में 12वें स्थान पर रही भारतीय महिला हॉकी टीम के टोक्यो में चमत्कारिक प्रदर्शन का उल्लेखनीय पक्ष यह भी है कि उसमें नौ बेटियां हरियाणा की हैं। हरियाणा की पहचान महिला हॉकी की नर्सरी की रही है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने इन सभी को 50-50 लाख रुपये पुरस्कार की घोषणा कर उनकी प्रतिभा-क्षमता का सम्मान ही किया है। पंजाब सरकार ने पुरुष हॉकी टीम के आठ सदस्यों को एक-एक करोड़ रुपये पुरस्कार का ऐलान किया है। निश्चय ही बेहतर प्रदर्शन की पहचान और मान-सम्मान से और बेहतर करने की प्रेरणा मिलती है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में लगातार शानदार प्रदर्शन के लिए सुनियोजित नीति और समर्पित प्रयास अनिवार्य हैं। पदक जीतने पर पुरस्कार से भी बेहतर परिणामदायक हो सकता है खेल और खिलाडिय़ों की प्रतिभा पहचानने-परखने-निखारने का व्यापक आधारभूत ढांचा और सुविधाएं। इस लिहाज से ओडिशा सरकार की प्रशंसा की जानी चाहिए, जो 2018 में सहारा इंडिया द्वारा पीछे हट जाने के बाद से पुरुष और महिला, दोनों हॉकी टीमों की प्रायोजक बनी हुई है। अगर भारत को अंतर्राष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में आबादी नहीं, अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप भी प्रदर्शन करना है तो खेल और खिलाडिय़ों को बेहतर सुविधाओं के लिए धन की कमी को दूर करना होगा। राज्य सरकारें एक-एक खेल की प्रायोजक बन कर इस दिशा में शुरुआत करें और बड़े उद्योग समूहों को भी प्रेरित किया जाये कि वे क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को प्रायोजित करें।